गत दिनांक 14 नवंबर, 2024 को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू की 135 वीं जयंती थी। इतिहास उसका मूल्यांकन संभवत: कैसे करेगा? नेहरू, प्रथम दृष्टया संभवत: एक देशभक्त, जिसने देश की आजादी के लिए जीवन के कुल मिलाकर लगभग साढ़े नौ साल एक राजनीतिक कैदी के रूप में एक बहुत विलासिता पूर्ण और सर्वसुविधा संपन्न महल रूपी जेल आगा खां पैलेस( महल ) में बिताए। यह एक संभवतः चुनौतीपूर्ण परीक्षा रही होगी, विशेषकर एक अत्यधिक धनी और विशेषाधिकार प्राप्त ( Privileged ) परिवार में जन्मे किसी व्यक्ति के लिए। हाल ही में, उसके वंशज और कांग्रेस पार्टी के तथाकथित “उतराधिकारी” या उस पर तथाकथित “वंशानुगत मालिकाना हक” रखने वाले राहुल गांधी ने एक लेख में लिखा है : “भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ( Colonial Rule ) भारत के ही कुछ वर्गों ( Sections ) द्वारा दिए गए भारी समर्थन के कारण ही संभव हो सका।”
इस मामले में राहुल निश्चित रूप से सही हैं क्योंकि औपनिवेशिक साम्राज्य ( Colonial Empire ) की सेवा करने वालों में उनके पूर्वज जो छुपे हुए और भारी भुगतान प्राप्त ( Heavily Paid ) ब्रिटिश एजेंट के रूप में काम करते थे निश्चित रूप से शामिल थे। नेहरू के पूर्वजों के साथ ऐसे ही एक छुपे हुए और अंग्रेजों से भारी भुगतान प्राप्त ( Heavily Paid ) ब्रिटिश एजेंट मोहन दास करमचंद गांधी भी था जिसने निस्संदेह और निश्चित रूप से ब्रिटिशों के लिए अत्यधिक काम और सेवा की अथवा कहिए भारत की गरीब और लाचार जनता की कीमत पर और उस गरीब जनता के कंधों पर सवार होकर अंग्रेजों की अत्यधिक काम और सेवा की । ब्रिटिश साम्राज्य ( British Empire ) को उसके प्रारंभिक काल में इन अंग्रेजी एजेंटों ने बहुत मजबूत किया और स्वयं ने भी अत्यधिक भारी संपत्ति बनाई। नेहरू परिवार मोतीलाल नेहरू जैसे बहुत बड़े वकील और अत्यधिक होशियार और चालाक आदमी के नेतृत्व में कई पीढ़ियों तक औपनिवेशिक शक्तियों के अधीन अपनी बड़ी भूमिका निभाने के कारण अत्यधिक धन समृद्धऔर ऊंचे दर्जे का मालिक बन गया और अपने भारत के अनेकों महान और बड़े नेताओं के समक्ष एक नगण्य से आदमी अपने लड़के जवाहर लाल नेहरू को पहले कांग्रेस सभापति ( तत्कालीन अध्यक्ष ) और फिर गांधी से अपने छुपे हुए और प्रगाढ़ पारिवारिक संबंधों का फायदा उठाकर अयोग्य होते हुए भी छल प्रपंच द्वारा स्वतंत्र होने वाले भारत का प्रधानमंत्री बनाने में सफल रहा !
कांग्रेस पार्टी की आधिकारिक वेबसाइट ( Official Website ) के अनुसार, “मोतीलाल नेहरू के दादा, लक्ष्मी नारायण, दिल्ली के मुगल दरबार में ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले वकील बने थे। उनके पिता, गंगाधर, वर्ष 1857 में दिल्ली में एक पुलिस अधिकारी ( शहर कोतवाल ) थे, जब दिल्ली उस वर्ष भारतीय क्रांतिकारी विद्रोह से घिरी हुई थी। कांग्रेस की आधिकारिक वेबसाइट और औपनिवेशिक इतिहास में जिसे “सिपाही विद्रोह” ( Sepoy Mutiny ) कहा गया है, उसे सच्चे भारतीय इतिहास में “भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ( First Indian War of Independence ) के नाम से जाना जाता है।
वेबसाइट आगे कहती है, “जब ब्रिटिश सैनिकों ने शहर में गोलीबारी की, तो गंगाधर तब वह मूर्तियां मुसलमान था और उसका नाम “गयासुद्दीन गाजी” था अपनी पत्नी जियो रानी और चार बच्चों के साथ आगरा भाग गए वहां जाकर उसने अपने को छिपाने के लिए हिन्दू का वेश बदल लिया और अपना नाम “गंगाधर नेहरु” बदल लिया और मुस्लिम से कश्मीरी पंडित बन गया जहां चार साल बाद उसकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के तीन महीने बाद, जियो रानी ने एक लड़के को जन्म दिया, जिसका नाम मोतीलाल रखा गया। मोतीलाल नेहरू ने कानपुर से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और इलाहाबाद के मुइर सेंट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया। उन्होंने जल्द ही प्रिंसिपल हैरिसन और उनके ब्रिटिश सहयोगियों का ध्यान आकर्षित कर लिया।”
वर्ष 1803 – 05 में द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध ( Second Anglo Maratha War ) में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा मराठों को हराने के पश्चात दिल्ली पर भारतीय लोगों का नियंत्रण समाप्त हो गया। उसके बाद, “नाममात्र का ( Titular )” मुगल सम्राट “बहादुर शाह जफर” जो उस समय तक मराठों का पेंशनभोगी था, ने खुशी-खुशी अंग्रेजों से सहायता स्वीकार करना शुरू कर दिया। नेहरू के पूर्वजों ने मुगलों और ईस्ट इंडिया कंपनी “दोनों की ही सेवा” की थी।
यद्यपि अंग्रेजी शासन के प्रति जवाहर लाल नेहरू की प्रतिबद्धता या भयानक गुलामी भारत की स्वतंत्रता के बाद तक और अपनी मृत्यु तक निर्विवाद रूप से कायम रही, उसकी शिक्षा और पारिवारिक पृष्ठभूमि ने अक्सर उसे देश और इसकी विविध चुनौतियों को निष्पक्ष नहीं बल्कि अपने भयानक रूप से रंगीन ब्रिटिश औपनिवेशिक चश्मे से ही देखने के लिए प्रेरित और अभ्यस्त किया।
वर्ष 1949 – 50 में, अयोध्या में राम मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए व्यापक संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) सरकार और फिर सामाजिक समर्थन के बावजूद, यह रामजन्मभूमि पुनर्निर्माण के लिए नेहरू का भयानक स्वार्थयुक्त विरोध ही था जो इस मुद्दे को सात दशकों से भी अधिक समय तक लटकाए रखने के लिए जिम्मेदार है।
गांधी और सरदार पटेल के दबाव में, नेहरू ने नवंबर, 1947 में गुजरात में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण को बिना मन के मंजूरी दे दी। हालांकि, इन दो दिग्गज नेताओं के निधन के बाद, इस मंदिर परियोजना के प्रति नेहरू का दृष्टिकोण बिल्कुल 360° के कोण से ही बदल गया। उसने अपना पहले पहना हुआ नकली मुखौटा एकदम से उतार दिया और उसका भयानकतम तुर्क तुष्टिकरण करने वाला, भयानक अवसरवादी चेहरा और भयानक औपनिवेशिक मानसिकता स्पष्ट रूप से खुलकर सामने आ गई। नेहरू ने अब सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण पर भयानकतम आपत्ति जताई (जिसे उसने पहले करने की बिना मन से लोग दिखाऊ आज्ञा दे दी थी) और तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को “छद्म धर्मनिरपेक्षता” (Fictitious Secularism) के नाम पर इस विश्वप्रसिद्ध और मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा धन लूटने के लिए अनेकों बार ध्वस्त किए गए इस महान मंदिर के पुनर्निर्माण के उद्घाटन के गौरवशाली अवसर पर सम्मिलित होने से रोकने का अत्यधिक प्रयत्न किया परंतु माननीय राष्ट्रपति महोदय ने नेहरु के इस अतार्किक आदेश को मानने से मना कर दिया और नेहरू के मना करने के बावजूद उद्घाटन करने चले गए जिसका इस भयानक और नीच और कमीने “काले अंग्रेज” ने बाद में डा. राजेन्द्र प्रसाद को व्यक्तिगत रूप से भयानक रूप से प्रताड़ित करके उसका भयानकतम बदला निकाला। कार्यमुक्त होने के पश्चात राष्ट्रपति महोदय को नियमानुसार दिल्ली में बड़ा बंगला आवंटित नहीं होने दिया और उनको बिहार जाकर अपने गांव में “सदाकत आश्रम” में रहना पड़ा क्योंकि उनके पास अपना कोई घर नहीं था और पत्नी का स्वर्गवास हो चुका था। गांव में अकेले रहने, पर्याप्त चिकित्सा व सेवा सुश्रुषा नहीं होने से अस्थमा रोग से उनकी भयानक निराश्रित और असहाय अवस्था में असमय ही मृत्यु हौ गई । यह उनके अंतिम संस्कार में ना तो खुद गया और ना ही सरकार की तरफ से किसी को भेजा। ( ये पंक्तियां और अनेक स्थानों पर कई शब्द मूल अंग्रेजी लेख में सम्मिलित नहीं है वरन् सत्य तथ्यों के आधार पर हिंदी अनुवादक और संपादक ने किए है जिनके लिए वह पूर्ण उत्तरदायी है। )
भारत की परंपरागत विरोधी और विकृत औपनिवेशिक दृष्टिकोण के कारण ही अपने संपूर्ण जीवन में ही प्रायः समस्त हिंदू परंपराओं और प्रथाओं को और अत्यधिक घृणा की दृष्टि से देखता और उनकी खुली आलोचना करता रहता था जबकि मुस्लिमों के बारे में उसकी ज़बान भी नहीं खुलती थी उल्टा उनके गलत रीति रिवाजों की भी प्रशंसा करता रहता था। दिनांक 17 मार्च, 1959 को दिल्ली में वास्तु कला ( Architecture ) पर एक सम्मेलन में उसने कहा, “हालांकि, दक्षिण के कुछ “हिंदू मंदिर” अपनी अत्यधिक सुंदरता के होते हुए भी मुझे बिल्कुल आकर्षित नहीं करते हैं। मैं उन्हें बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। क्यों? यह मुझे नहीं पता। मैं उसे आपको समझा भी नहीं सकता, पर वे भयानक दमनकारी ( Destructive ) हैं; वे मेरी आत्मा को दबा देते हैं (Supress My Soul), वे मुझे उठने नहीं देते; वे मुझे दबाए रखते है। ”नेहरूवादी सर्वसम्मति” के प्रभाव में आने वाले लोगों ने स्पष्ट रूप से सदैव ही “राम जन्मभूमि आंदोलन” का विरोध किया था । अब, उन्हें अयोध्या में “राम मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए सामंजस्य बिठाना” मुश्किल हो रहा है।
दिनांक 18 मई, 1959 को देश के मुख्यमंत्रियों को संबोधित एक कुख्यात पत्र में, नेहरू ने “हिंदू समुदाय को सांप्रदायिक करार दिया”, यह तर्क देते हुए कि “भारत में मुसलमान, कुछ चीजों को पसंद नहीं करते हुए भी “कभी आक्रामक रवैया नहीं अपना सकते बल्कि ऐसा वे तभी करते हैं जब वे भयभीत हो जाते हैं। हताशा उन्हें पकड़ लेती है, और फिर वे गलत और आक्रामक तरीके से कार्य कर सकते हैं!” “सांप्रदायिक शांति की जिम्मेदारी बहुसंख्यक समुदाय, यानी हिंदुओं पर है। “यदि इस शांति का उल्लंघन होता है, तो मैं इस धारणा से शुरुआत करूंगा कि हिंदू सांप्रदायिक तत्वों ने इसका कारण बनाया है।” यह इस तथ्य के बावजूद था कि मुसलमानों की मांग पर ही उसकी खुद की देखरेख में ही भारत का “धार्मिक आधार” पर विभाजन हुआ था। भारत की सांप्रदायिक समस्या के बारे में नेहरू की समझ कितनी भयानकतम रूप से गलत और पक्षपातपूर्ण थी, इसका खुलासा 1980 – 90 के दशक में मुस्लिम बहुल कश्मीर में हिंदुओं के भयानक उत्पीड़न के समय हुआ। कश्मीर घाटी में मुसलमानों ने बिना किसी उकसावे के स्थानीय हिंदुओं के खिलाफ खतरनाक कार्रवाई की। आज तक, अधिकांश कश्मीरी हिंदू अपने ही देश में शरणार्थी बन चुके हैं क्योंकि कट्टरपंथी इस्लाम का आतंकी भूत अभी भी उनके पूर्वजों की भूमि पर मंडरा रहा है।
एक अन्य उदाहरण में, जब एक कांग्रेस सांसद ने 2 अप्रैल,1955 को लोकसभा में गोहत्या पर राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध लगाने के लिए एक विधेयक पेश किया। एक महत्वपूर्ण उपाय जिसे कांग्रेस पार्टी के एक महत्वपूर्ण और बडे़ वर्ग ने समर्थन दिया। नेहरू ने इस बिल के पारित होने पर अपना त्यागपत्र देने की धमकी दी।परिधान और खान पान की प्राथमिकताएँ पूरी तरह से व्यक्तिगत पसंद और स्वाद का मामला है। हालाँकि, नेहरू के मामले में, उनके भोजन विकल्प उनके व्यक्तित्व के भयानक पाखंड भरे पहलू को और अधिक रेखांकित करते हैं। नेहरू न केवल गोहत्या पर प्रतिबंध के विरोधी थे, बल्कि “गोमांस (BEEF) उनका दैनिक और पसंदीदा भोजन था।”
अमेरिकी विश्लेषक और CIA के पूर्व अधिकारी ब्रूस रिडले ने अपनी पुस्तक “JFK ‘s Forgotten Crisis : Tibbet, The CIA and the Sino Indian War” में नेहरू व इन्दिरा द्वारा वर्ष 1956 में अमेरिका की यात्रा के बारे में इस सार्वजनिक दस्तावेज़ में इसकी पुष्टि की है। रिडेल लिखते हैं, “यह पता चला कि दुनिया के सबसे बड़े हिंदू देश के नेता को “फ़िले मिग्नॉन” (गौमांस = बीफ़) पसंद था और जब तक यह सब निजी था तब तक उन्होंने स्कॉच का आनंद लिया। नेहरू की बेटी इंदिरा ने भी उसकी भोजन संबंधी प्राथमिकताओं को साझा किया।” हिंदू परंपराओं के प्रति उसका भयानकतम तिरस्कार “संवैधानिक स्वतंत्रता” की आड़ में ईसाई मिशनरी धर्मांतरण गतिविधियों का मौन समर्थन और पूर्णतया हर तरह की सहायता और सहयोग करने तक बढ़ गया, जैसा कि 17 अक्टूबर, 1952 को मुख्यमंत्रियों को लिखे गए एक पत्र में प्रमाणित है।
विदेशी प्रभाव से आकार लेने वाला नेहरू का “छद्म और काल्पनिक विश्वदृष्टिकोण (Fictitious and Imaginary World View) अक्सर उन्हें जमीनी हकीकतों (Actual Realities) से सर्वथा दूर कर देता था। जम्मू कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के प्रति उनकी भयानक घृणा ने कश्मीर मुद्दे को भयानकतम जटिल और देश के लिए आज तक की भयानकतम और कभी भी ना सुलझने वाली समस्या बनाने में जानबूझकर भयानकतम भूमिका निभाई, सरदार पटेल द्वारा मना करने के बावजूद जानबूझकर संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर इसका अंतर्राष्ट्रीयकरण किया और कश्मीर के एक तिहाई हिस्से पर पाकिस्तान का कब्ज़ा करवा दिया जो आज तक चला आ रहा है। कश्मीर के विलय में देरी किसने की, इसका प्रमाण 24 जुलाई, 1952 को लोकसभा में नेहरू के भाषण में मिलता है, जहां उसने उल्लेख किया कि विलय का प्रश्न “अनौपचारिक रूप से जुलाई के आसपास या जुलाई (1947) के मध्य में हमारे सामने आया था” और आगे कहा कि “हमारे वहां के लोकप्रिय संगठन, “नेशनल कॉन्फ्रेंस” (शेख अब्दुल्ला) और उसके नेताओं से संपर्क थे, और महाराजा की सरकार से भी हमारे संपर्क थे।” उसी भाषण में, नेहरू ने अपना रुख स्पष्ट किया : “हमने दोनों को जो सलाह दी वह यह थी कि कश्मीर एक विशेष मामला है, और वहां चीजों को जल्दबाजी में करने की कोशिश करना सही या उचित नहीं होगा।”
नेहरू की भयानकतम “रणनीतिक अदूरदर्शिता” केवल कश्मीर तक ही सीमित नहीं थी। उसने चीन की विस्तारवादी नीतियों के संबंध में सरदार पटेल जैसे महान, बुद्धिमान, अत्यधिक दूरदर्शी, व्यवहारिक और जमीन से जुड़े नेताओं की चेतावनियों को बिल्कुल नजरअंदाज कर दिया। नेहरू ने भारत के एक महान सुअवसर को गँवाते हुए, “संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद” ( United Nations Security Council ) में स्थायी सीट के लिए जोर शोर से चीन के दावे का समर्थन किया। दिनांक 2 अगस्त,1955 को मुख्यमंत्रियों को लिखे नेहरू के “कुख्यात पत्र” में कहा गया है : “अनौपचारिक रूप से, संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा सुझाव दिए गए हैं कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में लिया जाना चाहिए, लेकिन सुरक्षा परिषद में नहीं, और भारत को उसकी जगह लेनी चाहिए।” ( फिर अमेरिका की चेतावनी को तुमने एकदम से नजर अंदाज करके जानबूझकर भयानक “अपराधिक लापरवाही” (Criminal Negligence) क्यों की ?
सुरक्षा परिषद में भारत की स्थिई सीट बेशक हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि इसका मतलब है चीन के साथ मतभेद, और “चीन जैसे महान देश के लिए सुरक्षा परिषद में न होना बहुत अनुचित होगा।” ) यह भयानक अदूरदर्शी निर्णय वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय सर्वथा उल्टा पड़ गया, जिसके कारण भारत की चीन के हाथों भयानकतम और अपमानजनक पराजय हुई और 38,000 वर्ग किलोमीटर भारतीय क्षेत्र चीन के कब्जे में चला गया। इस भयानकतम पराजय से नेहरू को भयानक सदमा लगा और 27 मई, 1964 को उसका असामयिक निधन हो गया।
स्वतंत्रता के बाद भारत को विरासत में मिला ख़ज़ाना ख़त्म हो गया। नेहरू के “सोवियत प्रेरित समाजवादी आर्थिक मॉडल” ( Soviet Inspired Sociological Economic Model ) ने देश के आर्थिक विकास को सर्वथा अवरुद्ध और नष्ट कर दिया, जिससे वर्ष 1970 – 80 के दशक में देश में भयानक गरीबी, भूख और भ्रष्टाचार फैल गया। वर्ष 1991 तक, भारत को अपना विदेशी ऋण चुकाने के लिए “रिजर्व स्वर्ण भंडार गिरवी रखना पड़ा।” हालाँकि, नवीन आर्थिक सुधारों और प्रगतिशील नीतियों ने देश को हाल के दशकों में इस भयानक आर्थिक जड़ता ( Economic Inertia ) से उबरने में मदद की है।
इतिहास विभाजन के बाद उथल-पुथल भरे युग में खंडित भारत ( 560 से अधिक निजी राजे रजवाड़ों की रियासतों ) का एकीकरण करने के लिए सरदार पटेल और नेतृत्व करने के लिए नेहरू को श्रेय देगा। फिर भी, यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि महात्मा गांधी के भयानकतम अनैतिक और अनुचित हस्तक्षेप के कारण ही नेहरू स्वतंत्र भारत की सत्ता प्राप्त करने में सक्षम हुआ। वर्ष 1946 में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव इसका प्रमाण है, जहां गांधी ने सरदार पटेल के पक्ष ( 15 / 00 वोट ) में बहुमत के फैसले को बिल्कुल पलट दिया, जिससे नेहरू के सिंहासन पर बैठने का मार्ग प्रशस्त हो गया।समकालीन पत्रकार दुर्गा दास ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक “From Curzon to Nehru and After” में लिखा है कि गांधी ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह नेहरू को एक “अंग्रेज” के रूप में देखते थे जो “दूसरा स्थान नहीं लेगा” ( An Englishman who would never take second place ).
लेखक, संपादक और प्रस्तुतकर्ता :
डा. ओमप्रकाश आर्य सैनी PhD ( BANKING & FINANCE )
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